________________ .||477 // कौपीनमात्रवसनमात्रदण्डकमण्डलुम् / साक्षमालं तमालम्ब्य यावत्सा स्थातुमैहत . // 472 // तावदेकं विना ब्रह्म प्रपञ्चः सकलो मृषा। इति तन्मुखभूर्जज्ञे ध्वनिस्तच्छ्रवणाध्वनि .... // 4 // 73 // विवेकः प्रोचिवानम्ब विलम्बः क्रियतेऽत्र किम् / शृणु श्रवणयोस्तप्तत्रपु जल्पन्त्यमी कथम् // 474 // एते विना परब्रह्म यदि प्राहुर्मषाखिलम् / तत्तृष्णजः प्रार्थयन्ते नदी किं न मरीचिकाम् // 475 // एते विना परब्रह्म यदि प्राहुर्मृषाखिलम् / तद्व्यक्तमुक्तमप्येषां मृषा कः प्रत्ययस्ततः // 476 // यद्येतदेवमाहुस्ते परमार्थंकदृष्टयः / तन्नीरेऽनुदिनं स्नान्ति भावशुद्धिजुषोऽपि किम् नीरात्पावित्र्यमाहारात्तृप्ति शास्त्राच्च पाटवम् / बोधं वाचश्च विन्दन्तोऽमी किं सर्वापलापिन: // 4 // 78 // किं चैते प्राहुरात्मैक्यं जलचन्द्रोपमानतः / तन्न चारु विचारौकः प्रवेशानुपलभन्तः // 479 // तथाहि-जायन्ते जन्तवः केऽपि नाकिनो नारकाः परे / केऽपि विप्राः परे म्लेच्छा विशः केऽपि परे स्त्रियः // 480 // भोगाननुभवन्त्येके रोगान् दीनाननाः परे / प्रज्ञावज्ञातवागीशा एकेऽन्ये तु निरक्षराः // 4 // 81 // कृमिकीटपतङ्गाद्याः केप्यन्येऽश्वगजादयः / . एकात्म्ये विश्ववैचित्र्यमेतत्सङ्घटते कथम् // 482 // उक्तो जलेन्दुदृष्टान्तो योऽयं तत्सिद्धये बुधैः / / बालस्यालापवत्सोऽपि न हि क्षोदक्षमो यतः / // 4 // 83 // 184