________________ // 4 // 60 // // 4 // 61 // // 4 / 62 // // 4 // 63 // // 4 // 64 // // 4/65 // यावद्रागादिरिक्तत्वं वक्तुः स्यान्न सुनिश्चितम् / न सत्यप्रत्ययं तावद्वेदवाक्येषु दध्महे स तु वेदस्य वै दस्युरिव विश्वासनाशने / यो वक्त्यूपौरुषेयत्वं विश्वासो ह्याप्तवक्तृभूः अपक्षनखष्ट्रा िवलान् छागान् कतौ घ्नता / याज्ञिकेनेत्यसत्यापि दैवं दुर्बलघातकम् यज्ञार्थं पशवः सृष्टा यदीति वदति स्मृतिः / तन्मांसमश्नतः स्मार्ता वारयन्ति न किं नृपान् विना पलं बलं नैषां स्यात्क्षोणीरक्षणक्षमम् / यदीत्याहुरवी तन्न बलं दुग्धैघृतैरपि वधे दोषो न तु क्रीत्वाऽशने वागिति दुर्मतिः। . यत्तुल्यौ हन्तृभोक्तारौ को हन्यान्नाद्मरोस्ति चेत् यन्मनुः-अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी / संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः / हिंसाप्यहिंसा वेदोक्तेत्याहुरागमरा गतः / ये. निर्विचारचित्तास्ते चार्वाकाय शषन्ति किम् येषां पञ्चेन्द्रियप्राणनाशे नाशङ्कते मनः / / कुन्थुपूतरकादीनां वधे तेषां कुतः कृपा . वधो धर्म जलं तीर्थं गौर्नमस्या गुरुर्गृही / / अग्निर्देवो द्विकः पात्रं येषां तैः कोऽस्तु संस्तवः मत्संपन्या अमी सर्वे प्रवृत्तेः पक्षपातिनः / मारिच मोहभूरत्रास्तीति ध्वात्वा चचाल सा पुनः श्रमार्त्ता पश्यन्ती विश्रामार्थमितस्ततः / पुरो यागद्विषं भागवतव्रातं व्यलोकत 183 // 4 // 66 // // 4 // 67 // // 4 // 68 // // 4 // 69 // // 4/70 // // 4/71 //