________________ // 484 // // 4 // 85 // // 4 // 86 // // 4 // 87 // // 4 // 88 // // 4 // 89 // व्योम्नीन्दावुदितेऽस्ते च छने ग्रस्ते कृशोऽकृशः / यथाखिलजलेन्दूनां तद्भावो न तथात्मनि उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वारिधौ वीचयो यथा / तथैकस्यात्मनो ह्येते विशेषा न तु ते पृथक् इति चेत्तन्न यद्वीच्यो भवेयुरिधेः समाः / अमूर्तस्यात्मनो मूर्ता विशेषा इति दुर्वचम् निःसङ्गा अपि जल्पन्ति यद्येवमसमञ्जसम् / तन्मन्ये मोहभूपालमन्त्रिणोऽमी वशंवदाः तव तुष्यति चेच्चेतः कुशले कुशलेन मे / श्रान्तापि कूलछायावदेषां तत्सन्निधि त्यज पुत्रप्रेरणयापद्य पन्थानं परमेश्वरी / परीश्रान्ता पुनः क्वापि प्रापं सा तापसाश्रमम् अयत्नलभ्यपालाशपर्णशालानिवासिभिः / युक्तं जयधरैर्भुक्तत्यक्तभोगैः शिवेच्छया बालर्षिभिः पयस्कुम्भैः सिच्यमानाणुपादपम् / पद्मासनासीनमुनिकोडक्रीडन्मृगार्भकम् जरत्तापससंचारव्यग्रपार्षतपर्षदम् / उटजाजिरसंशोष्यमाणनीवास्तण्डुलम् पाठ्यमानशुकं ग्रथ्यमानरुद्राक्षमालिकम् / तं प्रविश्याशु विश्रान्त्यै चक्षुश्चिक्षेप साऽभितः बीजशोषं मूलकन्दफलत्वचवियोजनम् / दुमसेकं कुशच्छेदं तेषां वीक्ष्य जगाद सा अमी मोहनृपोद्भूतारम्भविश्रम्भभाजनम् / प्रान्तयापि मग हेया दूरे चौरद्रुमा इव 185 // 4 // 90 // // 4 // 91 // // 4 // 92 // // 493 // // 4 // 94 // // 4 // 95 / /