________________ // 3 / 232 // // 3233 // // 3 / 234 // // 3 // 235 / / // 3 / 236 // // 3 // 237 // माताप्यस्याः सदोषेति प्राक् पत्या परितत्यजे। तदपत्यं भवेदीदृग् यदि किं नाम दुर्घटम् भ; न निर्भरं भक्ता त्वय्यसावन्तरान्तरां / त्वयाऽवहीलितं हंसमुषष्टभ्नाति यत्सदा विवेकस्तनयोऽमुष्या मोहं मत्स्वामिनीसुतम् / जातिवैरीव वैरायमाणः प्राणं जिघांसति बलिनानेन रुद्धस्य यद्यस्य स्याद्रुपद्रवः / तदा द्रक्ष्यसि जीवन्तीं न पुनः प्राणनाथ ! माम् प्रयोजनं जनाधीश ! मया चेदक्षताङ्ग्या / . निसिय गृहाच्छल्यमिव तत्ससुतामिमाम् फणिन्याशीविषा पुच्छान्तविषा वृश्चिकी पुनः / लूता लालाविषा एव सपत्नी सकलाविषम् यत्तयाऽवादि तत्सर्वं मन्त्री निर्मितवांस्तथा / सतीनां दुर्दशां व्यक्तं वक्तुं न प्रभवो वयम् स्त्रीणां वशंवदास्तत्किं पुमांसो यन्नकुर्वते / . पश्य वात्येरितो वह्निर्दग्धुं प्रारभते पुरम् राज्ञो निगडितस्यापि प्रसादैकवशंवदा / तदिच्छाशक्तिनुन्ना सा पन्थानं सुखमत्यगात् निवृत्तौ प्रोषितायां सा नृत्यति स्म निरन्तरम् / निःशल्यमधुना राज्यं जातमित्युल्लसन्मनाः प्रचण्डपवनोद्भूतपताकाञ्चलचञ्चलः / स निवृत्तिं विना नित्यं तयाऽभ्रामि दिशो दिशि दुर्बुद्ध्या प्रेरितो दध्यौ बह्वमंस्त च मायया / प्रवृत्त्या चोपचक्राम कर्तुं दुष्कर्म मन्त्रिराट् 106 // 3 / 238 // // 3 // 239 // // 3 / 240 // // 3241 // // 3 / 242 // // 3 / 243 //