________________ मन्त्री स्वेनैव सर्वस्वं ददत्यपि हरत्यपि। . स्वेनैव वितनोत्येष बन्धमोक्षौ शरीरिणाम् // 3 // 185 // वर्षकोटिंकृताकूटतपःकूटकृशाङ्गकाः / प्रापिताः प्राणिनोऽनेन सप्तमं नरकं बलात् // 3186 // भूयिष्टदिष्टनिर्विष्टभोगपुष्टाङ्गयष्टयः / सर्वार्थसिद्धि सिद्धि वा निन्यिरैऽनेन केचन . // 3 // 187 // तपोजपदयादानादीन् गौणीकृत्य सद्गुणान् / जन्तूनां फलकाले स स्वस्य प्रामाण्यमैहत // 3188 / / मायया मोहितस्यास्य तस्याः पुत्रोऽभवत्प्रियः / उपेक्षितोप्यहोऽप्राणीद्विवेको वन्यवृक्षवत् // 3 // 189 // विवेकं वीक्ष्य सौम्यास्यं पुरः क्रीडन्तमन्यदा। एकाग्रस्तत्प्रसूं विद्यां विस्मृतामिव सोऽस्मरत् // 3 // 190 // स्मृता प्रादुरभूदेषाऽन्यवेषा स्वर्वधरिव / तदर्शनामृतैर्मन्त्री क्षणं व्यग्रोपि निर्ववौ .. // 3 / 191 // तया सहागतां पूर्वपत्नी राजाऽस्पृशद्दशा / / कुतोऽस्य दृढबन्धस्य शक्तिस्तत्परिरम्भणे // 3 / 192 // प्राक्तनीमनपस्मारः स सस्मार यथा यथा / तस्याः शिक्षा हतानन्दः स्वं निनिन्द तथा तथा // 3 / 193 // विललाप च गौराङ्गि ! गौरव्ये ! गुणशालिनि ! / गङ्गाजलोज्ज्वले ! मह्यं सुबुद्धे ! देहि दर्शनम् // 3 // 194 // त्वामपास्य मया मायां स्वीकृत्य स्वं विडम्बितम् / . त्यक्त्वा चिन्तामणि काचग्राही किं वापि नन्दति // 3 // 195 // त्वयि सत्यां त्रिलोकस्याधिपत्यं मे न दुर्घटम् / अनार्यैरपि कार्ये त्वां विनाऽहं कर्मवेश्मसु // 3196 // 102