________________ // 3 // 125 // // 3 / 126 // // 3 / 127 // // 3 / 128 // // 3 / 129 // // 3 // 130 // तस्या अदर्शने माया प्रत्युतोन्मादमादधे / घुपतिद्युतिदूरत्वे किं न दृप्यति यामिनी साथ नाथं निराशङ्का सर्वाङ्गं परिषस्वजे / तथा यथानयोर्भेदो नाभूत् क्षीराम्बुनोरिव तत्परस्तत्परीरम्भसुखोन्मेषाय भूपतिः / प्रावर्त्ततानिशं तस्या एव रागविवृद्धये एषा प्रियतमा राज्ञ इति निश्चित्य निर्भरम् / मनोऽप्युपाचरन्मायामेव मुख्यं मनीषिणाम् तुष्टिः पुष्टिर्बलं तेजस्तस्या उज्जृम्भते यथा / नित्यं मुक्त्वा परं कृत्यमचेष्टत तथा मनः सापि तस्यातिभक्तस्य श्रियं कामप्यदित्सत। . भक्तेषु बद्धमुष्टियः स हि सेवां किमर्हति नृपश्चके मनोऽमात्यं मायया प्रेरितस्ततः / . प्रेयस्याः पाक्षिकाः प्रायः प्राप्यन्ते प्रौढिमीश्वरैः मनः कामाकुलं काले दारस्वीकारमैहत / ध्वनिमात्रेण तत्क्लीबं न पुनः परमार्यतः सदा सन्निहिता भर्तुर्दुर्बुद्धिर्निजनन्दिनीम् / लोलां लोलेन मनसा प्रवृत्ति पर्यणाययत् प्रवृत्तिः स्नेहबाहुल्यमूहे मोहे निरन्तरम् / यस्मान्मायाकुबुद्धिभ्यां सह भिन्नमना न सा तत्रान्यदागता दध्यौ तास्तिस्रो वीक्ष्य सन्मतिः / सहगगुणो गणोऽयं हि भूपस्यापूर्वभाक्तिकः नृपं निकन्दितुं क्रौर्यमाधुर्यो मिलिता इमाः / तिस्रोऽपि भरणीभद्रायोगिन्य इव कालत: 17. // 3 / 131 // // 3 // 132 // // 3 / 133 // // 3 // 134 // // 3135 // // 3 // 136 //