________________ राजा तु जातु मच्छिक्षामनात्मज्ञः शृणोति न / वीक्षतेऽक्षीणमेव स्वमाभिः कार्मणितो यथा // 3 // 137 / / योऽधिकारं मनोमन्त्री सम्प्रति प्रतिपद्यते / तस्यापि चालितस्याभिर्न वीक्षे स्थैर्यमायतौ // 3 // 138 // किं कुर्वे किं ब्रुवे जातं गृहसूत्रं यदीदृशम् / दत्ते रहस्यवार्तेयं चिन्त्यमानापि मे ह्रियम् // 33139 // ततो यदि महामात्यं निवृत्तिं स्वां तनूद्भवाम् / उद्वाहये कदापि स्यात्तस्याः कश्चित्तनूरुहः // 3 / 140 // स स्वं मातामहं क्लेशमग्नमुद्धर्तुमीशिता / स एव प्रसरं रोद्धमतासां प्रभविष्यति // 3 // 141 // ध्यात्वेति नेतुरिष्टोसि त्वमित्यालाप्य मन्त्रिणम् / निवृत्त्या निजनन्दिन्या सद्बुद्धिरुदवाहयत् // 3 // 142 // ते भिन्नप्रकृती पूर्वापश्चिमे इव भास्करम् / उपासामासतुरिक्रमेण द्वे अपि प्रियम् // 3 / 143 // आद्या तमनुदत्कर्मस्वन्या व्यरमयत्पुनः / / पण्याजीवः प्रभातास्तसन्ध्ययोरिव ही तयोः // 33144 // प्रवृत्त्यासञ्जि दुर्बुद्धेनिवृत्यासञ्जि सन्मतेः / काकाक्षिगोलकन्यायं ताभ्यां प्रेयानशिक्ष्यत // 3145 // दुर्बुद्ध्याकारि मायायाः सद्भक्तिं सापि दाम्भिकी। मोहेन सह सौहार्द ग्राहयित्वा तमब्रवीत् // 3 / 146 // भाग्यवानसि यत्पत्नी प्रवृत्ति प्राप्तवानसि / वल्लभा दुर्लभा प्रायोऽनुगुणा गुणिनामपि // 3 // 147 // सविलासा सलावण्याऽखिन्ना कृच्छेऽपि कर्मणिं। प्रवृत्तेः सदृशी नारी न क्षितावीक्षिता मया * // 33148 // 168