________________ मधुबिन्दूपमं दत्वा सुखं वैषयिकं शठा / हठान्नरककूपे त्वामेषा क्षिपति वेत्सि न // 3 // 101 // दुष्टवध्वानया बद्ध्वा पुमन्नमविक्रम ! / भ्राम्यसे. त्रिषु लोकेषु किं तेनापि न लज्जसे // 3 // 102 // पुष्णासि त्वमिमां यत्नाद्रध्नाति त्वामसौ पुनः / अस्यामुपचिकीर्षा ते पयःपानं भुजङ्गमे // 33103 // व्यालीव वह्निज्वालेव विषवल्लीय बद्धिता / विधत्ते वर्धकस्यासौ दुविधा विविधा व्यथाः // 3 / 104 // सरोवरादयं दावः सुधाकुण्डादिदं विषम् / खेरिदं तमश्चन्द्रादिदमङ्गारवर्षणम् // 3 / 105 // पायोनायादयं पांशुराशिः पथ्यादियं रुजा / परब्रह्मस्वरूपात्त्वद्यदयं कर्मविप्लव: // 3 / 106 // आसंसारमियं लग्ना स्वैरिणी वैरिणीव ते / संधत्तेऽनर्थकोटीस्त्वं न वेत्स्यनुभवन्नपि // 3 / 107 // अस्याः संभाव्यतेऽवश्यं वश्यकर्मणि कौशलम् / दुष्टामपि हितामेतामन्यथा मन्यथाः कथम् // 3 / 108 // मृणालजीवा नीवारभोजनं वालुकागृहम् / खलागूरसतीस्नेहश्चैते स्थैर्यविनाकृताः // 3 / 109 // प्रलोभ्य मधुरालापैरादौ प्रान्ते विडम्बिताः। गुणिनोपि न गाणिक्यमहत्तर्येव केऽनया // 3 // 110 // क तबलं ते भुवनावनक्षगं क्व तत्प्रभुत्वं हरिणापि दुर्लभम् / क्व ताः प्रयत्नोपचिता गुणश्रियोऽखिलं हतं विध्ध्यनयैव पापया अदारुरटवी स्रोतो निर्जलं रुगनामिका / तापोऽनग्निरलोहारा निहिञ्जीरं च बन्धनम् // 3 / 112 // ... . 175