________________ सम्भाव्यमानं भूभा पर्याप्तमभवन्मनः / . क्रमात्तारुण्यमानं च चञ्चच्चञ्चलतास्पदम् // 390 // मायावश्यो नृपो नैष्ट पुरं स्वमपि रक्षितुम् / निरोजाभरुजायेत रुजातॊ गजवैर्यपि // 391 // दयितस्य दशां दृष्ट्वा तामखिद्यत सन्मतिः / अहारि हा रिपूभूय मायया स्वामिनो बलम् // 3.92 // मायां वीक्ष्यान्यदा प्रीतिकलहाद्विमुखीं मनाक्। ऊचे सद्बुद्धिरेकान्ते कान्तमेकान्तवत्सला // 3 / 93 // विद्वन्नाद्रियते पापवनिताव्यसनं किमु / . उच्चावतंस ! नीचस्त्रीसंस्तवस्तव नोचितः // 394 // विपश्चित्कश्चिदस्यां हि दुष्टायां नानुरज्यति / त्वयात्र रज्यता स्वामिन्नसतां स्वं वर्तसितम् // 395 // प्राची विहाय विशदोदयदायिनीं यत्, त्वं पश्चिमां व्रजसि भास्कर ! साधुनिन्द्याम् / .. .. यत्तत्फलं तव भवत्यलमेतदुक्त्वा, क्षारं क्षते क्षिपति कः सुकृती परस्य // 396 // तृष्णार्तेनापि कार्यैव योग्यायोग्यविचारणा / पयः पिबति कस्तृष्णगपि श्वपचकूपके // 3 / 97 // दुर्वृत्तासौ मुमुक्षूणामपि बन्धनिबन्धनम् / निर्निमित्तरिपुः सज्जा तरज्जननिमज्जने // 398 // अजीजनस्त्वं समवीवृधस्त्वमिमां स्वपत्नीमकृथास्त्वमेव / . अद्य त्वयेदृक् चरितेन सोर्ज, गर्जन्तु चार्वाकमताश्रिता ये॥ 3 / 99 // पोषिता भवता तत्रैवैषा द्वेषानुषङ्गिणी। साधर्म्यहर्म्यतां नेया कथं सरलया मया / // 3 // 100 // 164