________________ // 378 // // 379 // // 380 // // 3 // 81 // // 3 // 82 // // 3183 // यत्र तत्र यतस्तस्य साभवत्पारिपार्श्विकी। कदापि सन्मतिर्लब्धावकाशा मा स्म भूदिति आसीदन्त्यां चिरप्रेम्णा सुबुद्धावन्तरान्तरा / नृपो विवेद निर्वेदकरी मायादुरात्मताम् विद्वानपि दुराचारां तां मोक्तुं नाशकन्नृपः / प्लावित: सिन्धुपूरेण कः क्षमस्तद्विमोचने भवेषु भूरिषु भ्रामं भ्रामं भूपोऽथ पान्थवत् / जातश्रम इवान्येद्युः पुरं शिश्राय मानवम् पुरं प्रविशता तेन कर्मयोगान्मनोऽर्भकः / सहसैत्यानुषक्तः सन् शकुनं बह्वमन्यत इन्द्रियोपात्तभावानामात्मनि व्यक्तिकारणम् / / आशुसञ्चारि संकल्पकारि पौद्गलिकं मनः तन्वा तनुर्बहुद्रव्योऽनलसश्च महाबलः / प्रधानं भविता मेऽसाबिति तं स्वीचकार सः . स्ववीर्येणाहृतैर्लोकवत्यौदारिकपुद्गलैः / / तदारेभे पुरं प्रौढिं परां नेतुं नरेश्वरः / प्राणादिकमरुत्कुटकौटुम्बिककरम्बितम् / / नानाव्यापारपारीणेन्द्रियपञ्चकुंलाकुलम् अजस्रवहमानेडापिङ्गलाराजवर्मकम् / . ' कतिचित्कृतिविज्ञातसुषुम्णामार्गसञ्चरम् अनुलोमलतालेखनाभिकुण्डोपपण्डितम् / नवद्वारं बहुक्लेशरक्षाजाग्रद्भुजार्गलम् चलच्चूलाध्वजं सप्तधातुपाटकपाटवम् / तत्तद्वस्तूपभोगार्ह काले स्फातिं दधौ पुरम् 13 // 3284 // / / 3 / 85 // / / 386 // // 387 // // 3288 // // 389 //