________________ यस्य राजगृहेशस्य सस्यश्रिय इव प्रजाः / ... सौम्यदृष्टिसुधावृष्टिसिक्ताः पप्रथिरेतराम् // 16 // यः खड्गकम्बयाऽरातीननभ्यस्तामपि स्वयम् / पलायनकलां युद्धशालायामध्यजीगपत् // 2 // 17 // उजःपूरेण पौरेभ्यो विदूरितमनाश्रयम् / कृपया स्थापयाञ्चक्रे रथचक्रेऽरिनाम यः // 2 // 18 // नायं हित्वा क्रमं नायं नायमानायमम्बुनि / कषाकर्षमृषि वीक्ष्य नायं सद्भावतश्च्युतः // 2 / 19 // नुवन्नवनवैश्छन्दोगणैर्यज्जैनतागुणम् / . . हरति स्म हरिगर्वं सर्वं स्वर्बन्दिनामपि // 2 // 20 // कौमारदारसंबन्धराज्यप्राज्यसुतोद्भवाः / तस्यागमात्परिज्ञेया नाधिकारोऽत्र तैर्यतः' // 2 // 21 // अर्हद्भत्क्यादिभिः स्थानैस्तीर्थकृन्नामकर्म सः / बबन्ध कैश्चन स्पष्टं काव्यं कविरिवाक्षरैः // 2 // 22 // वैमानिकेभ्यो न परां याति सम्यक्त्ववान् गतिम् / स्वाधीनकल्पवृक्षो हि कदन्नानि भुनक्ति कः // 2 / 23 / / तथापि प्रथमं प्राप व्यापद्य नरकं नृपः। . सम्यक्त्वलाभतः पूर्वं नरकायुर्बबन्ध यत् // 2 // 24 // रोद्धं शक्या वीचयो वारिराशे, रोद्धं शक्या अर्जुनस्यापि बाणाः / रोद्धं शक्या विद्युदभ्रात्पतन्ती, रोद्धं शक्या नो पुनः कमरेखा 2225 नरकस्थः सहस्वात्मन् ! स्वकृतानीति भावयन् / नात्यन्तवेदनः सोभूदुःखान्यनुभवन्नपि // 2 // 26 // चतुरभ्यधिकाशीतिसहस्रशरदत्यये / गतवर्त्तादिव गजो निरयात्स निरेष्यति - // 227 // 148