________________ // 252 // // 253 // // 254 // // 255 // // 256 // // 257 // संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा / तस्मात् संयोगसम्बन्धं त्रिविधेन परित्यजेत् ये हि जीवादयो भावाः सर्वज्ञैर्भाषिताः पुरा / अन्यथा च क्रिया तेषामिति चिन्ता निर्रथका यथा च कुरुते जन्तुर्ममत्वं विपरीतधीः / तथा हि बन्धमायाति तस्य कर्म समन्ततः अज्ञानावृतचित्तानां रागद्वेषवशात्मनाम् / आरम्भेषु प्रवृत्तानां हितं तेषां न भीतवत् परिग्रहपरिष्वङ्गाद् रागो द्वेषश्च जायते / . रागद्वेषौ महाबन्धकारणं बत कर्मणाम् सर्वसङ्गान् पशून् कृत्वा ध्यानाग्नावाहुति क्षिपेत् / कर्माणि समिधश्चैवं यागोऽयं सुमहाफल: राजसूयसहस्राणि अश्वमेधशतानि च / अनन्तभागतुल्यानि न स्युस्तस्य कदाचन . सा प्रज्ञा या शमे याति विनियोगपरा हिता / शेषा हि निर्दया प्रज्ञा कर्मोपार्जनकारिणी प्रज्ञाङ्गना सदा सेव्या पुरुषेण सुखावहा / हेयोपादेयतत्त्वज्ञा या रता सर्वकर्मणि दयाङ्गना सदा सेव्या सर्वकामफलप्रदा / सेविताऽसौ करोत्याशु मानसं करुणामयम् मैत्र्यङ्गना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी / या विधत्ते कृतोपास्तिश्चित्तं विद्वेषवर्जितम् सर्वसत्त्वे दयामैत्री यः करोति सुमानसः / जयत्यसावरीन् सर्वान् बाह्याभ्यन्तरसंस्थितान् 132 // 258 // // 259 // // 260 // // 261 // // 262 // // 263 //