________________ // 240 // // 241 // // 242 // सयप // 243 // // 244 // // 245 // को वा वित्तं समादाय परलोकं गतः पुमान् ? / / येन तृष्णाग्निसंतप्तः कर्म बध्नाति दारुणम् तृष्णान्धा नैव पश्यन्ति हितं वा यदि वाऽहितम् / सन्तोषाञ्जनमासाद्य पश्यन्ति सुधियो जनाः सन्तोषसारसद्रत्नं समादाय विचक्षणाः / भवन्ति सुखिनो नित्यं मोक्षसन्मार्गवर्तिनः तृष्णानलप्रदीप्तानां सुसौख्यं नु कुतो नृणाम् ? / दुःखमेव सदा तेषां ये रता धनसञ्चये सन्तुष्टाः सुखिनो नित्यमसन्तुष्टाः सुदुःखिताः / उभयोरन्तरं ज्ञात्वा सन्तोषे क्रियतां रतिः द्रव्याशां दूरतस्त्यक्त्वा सन्तोषं कुरु सन्मते ! / मा पुनर्दीर्घसंसारे पर्यटिष्यसि निश्चितम् ईश्वरो नाम सन्तोषी यो न प्रार्थयतेऽपरम् / . प्रार्थना महतामत्र परं दारिद्रयकारणम् . हृदयं दह्यतेऽत्यर्थं तृष्णाग्निपरितापितम् / न शक्यं शमनं कर्तुं विना सन्तोषवारिणा यैः सन्तोषोदकं पीतं निर्ममत्वेन वासितम् / त्यक्तं तैर्मानसं दुःखं दुर्जनेनेव सौहृदम् यैः सन्तोषामृतं पीतं तृष्णातृडुपनाशनम् / तैः सुनिर्वाणसौख्यस्य कारणं समुपाजितम् सन्तोषं लोभनाशाय धृति चाऽसुखशान्तये / ज्ञानं च तपसो वृद्ध्यै धारयन्ति मुनीश्वराः ज्ञान-दर्शनसम्पन्न आत्मा चैको ध्रुवो मम / शेषा भावाश्च मे बाह्याः सर्वे संयोगलक्षणाः .. . .. 131 // 246 // // 247 // // 248 // // 249 // // 250 // // 251 //