________________ सव्वे वि जस्स भेआ फलंति मणवञ्छिएहि सुक्खेहि / सुरतरुवणसममेंअं सेवह जिणसासणं भविआ! // 3149 // धणमिव धम्मं चिंतई जीविअमिव जो वयाई रक्खेइ। देवयमिव जिणसुगुरू आराहइ तं वरइ सिद्धी // 3 / 150 // इह फले (लए) जह कम्मे पवत्तए मोअगाइणा बालो। कामत्थदंसणा तह मूढो सिवसुहफले र(ध)म्मे // 3151 // नाणालवाल दंसणमूलो वयसाह सुतवनिअमदलो। भवसुहकुसुमो भव जयसिरिफलओ जयउ धम्मतरू // 3 // 152 // (षष्ठोऽशः) यः शास्त्रवेत्ता गुरुदेवभक्ता परोपकारी नयधर्मचारी / ज्ञाता गुणानामपवादभीरुः पुमान् स एवेह परे तु नाम्ना // 3 / 153 // ध्येयः परात्मा गुरुरर्चनीयः परोपकारः करुणा च सत्यम् / शमो दमो न्याययश:सुशास्त्राभ्यासाः सतामेष हिताय धर्मः॥ 3 / 154 // रतिः सदाचारविधावनिन्दा खलेष्वपि प्रीतिरथोत्तमेषु। अमत्सरः शास्त्रविदां च गोष्ठी शक्त्योपकारच सतां स्वभावः // 3 // 155 // दया दमः सत्यमगाढलोभता सुशीलता चार्जवमार्दवक्षमाः। प्रदानमस्तेयपरोपकारिते हिताय धर्मा इति सर्वसम्मताः // 3 // 156 // शास्त्रे रतिः सकलधर्मविचारणा च ध्यानं परात्मनि दयोपकृती सुशीलम् निन्दाकुसङ्गगुणिमत्सरवर्जनं च धर्मः सतां निखिलशास्त्रनिरूपितोऽयम् ज्ञानाभयान्नगृहभेषजवस्त्रदानंपूजाऽर्हतां गुणवतां विनतिः सुशीलम् / लोकापवादभयमन्यगुणग्रहो धीधर्मे यशश्च महतामिति मण्डनानि३।१५८ पैशुन्यमात्सर्यपरस्वहारहिंसाऽन्यनिन्दाक्षणदाऽशनानि / / कन्याद्यलीकानि च वर्जनीयान्यतः परं पापपदं न किञ्चित् // 3159 // . 155