________________ सुलभो न च मानुषो भवो न च देवो जिननायकः पुनः / न च पुण्यपथो जिनोदितो विशदाचारधरश्च सद्गुरुः // 3 // 38 // तदिमान् समवाप्य दुर्लभान् स्वहितं पुण्यविधि समाचर। ननु भव्य! भवाम्बुधाविह भ्रमणात् खेदमुपागतोऽसि चेत् // 3 // 39 // अकृतित्रुपतप्यसेऽधिकाः परऋद्धीविविधा विलोकयन्। न तु तत् कुरुषे स्वयं यतस्तव ताभ्योऽभ्यधिका भवन्ति ताः // 3 // 40 // पितृमातृमयोऽसि शैशवे ललनालौल्यमयश्च यौवने / कदपत्यमयश्च वार्द्धके न कदाऽप्यात्ममयस्तु रे जड! // 3 // 41 // किं विस्मृतं मरणमाधिगणाश्च नष्टाः? किं व्याधयोऽप्यपुनरागमनं निवृत्ताः? दुःखानि दुर्गतिभवानि नसन्ति किंवा? यन्नो करोषि सुकृतानि कदाऽपि जीव! परिकल्पितसंभवादपि व्यसनादत्र बिभेषि भव्य ! भोः!। परिचिन्तयसि प्रतिक्रियां न च तेषां परलोकभाविनाम् // 3 // 43 // समवेक्ष्य धनानि विभ्रमोद्भटनारीस्तनयांस्तथाऽऽत्मनः। मुदमावहसे न बुध्यसे निखिलं गत्वरमेव सत्वरम् // 3 // 44 // ननु धावसि धर्मबाधया विविधोपाधिभिरत्र शर्मणे। न बिभेषि तु दुर्गतिभ्रमान् मरणे तत्किल भावि किं न ते? // 345 / / नृपमानधनादिकोन्मदो विषयानेव समीक्षसे परम्। न विचारयसीति मूढ ! मे मरणे कः शरणीभविष्यति? // 346 // यदधीनमिहांग ! जीवितं चपलं श्वासमिमं न वेत्सि किम् ? / धनपुत्रकलत्रबन्धुषु स्थिरबुद्धि यदुपैषि मोहितः // 3 // 47 // पिच खाद ललाङ्गनागणैः शृणु गीतं परिपश्य नाटकम्। कुरु धर्मकथामपीह मा यदि ते शाश्वतमस्ति जीवितम् // 3 // 48 // शरदभ्रसमाः श्रियोऽखिलास्तटिनीपूरसमं च जीवितम्। नटपेटकवत् कुटुम्बकं ननु किं मुह्यसि धर्मकर्मसु? // 3 // 49 // 145