________________ // 1 // // 2 // // 3 // . // 4 // श्रीमद्धनविजयगणिविरचितम् ॥आभाणशतकम् // प्रणम्य गुरुपादाब्जं, स्मृत्वा च श्रुतदेवताम् / आभाणकानि वक्ष्यन्ते, पुण्यहेतूनि हेतुभिः सर्वजनपूजनीयो, जिनधर्मतो जनः सुकुलजातः। . स्वर्णं सहजसुगन्धं, नादेयं कस्य लोके स्यात् ? चराचराणां सर्वेषां प्राणिनां प्रीतिकारणम् / तुष्टिपुष्टिकर: श्रेष्ठो, जिनधर्मो गुडो यथा' . विधिनाऽऽराधितो जैनधर्मः शर्मकरो यथा। शङ्खः प्रदक्षिणावर्त्तः, पयसा भूयसा भृतः जिनधर्मफलाकाङ्क्षा, पूर्यते नान्यशासनैः / सहकारफलाकाङ्क्षा, सा यथा नाम्लिकाफलैः ज्ञानदर्शनचारित्रसम्यग्भावितमानसः / क्षीरखण्डाघृतास्वादादधिकं लभते सुखम् धर्म विना मन्त्रतन्त्रयन्त्रौषधनिषेवणम् / सुधीभिर्मनसा ध्येयं, सर्वं जलविलोडनम् धर्मोपदेशसमये, धर्मं न शृणोति यश्च निद्राति / स्वर्णनिधिलब्धिसमये, चक्षुर्विकलत्वमाप्नोति जिनधर्मं सुधास्वादं, परित्यज्य सुखावहम् / गृह्णन्ति ते विषं मिथ्यावादं निर्भाग्यशेखराः जैनं मतं परित्यज्य, गृहीतं परशासनम् / अन्धकारं कृतं तेन निमील्य नयने निजे धर्मोपदेशे दाने च, श्रमो वित्तव्ययोऽपि च। निन्द्यो न केनचिद्दन्तपात: कर्पूरभक्षणे 214 // 7 // // 8 // // 9 // // 10 // // 11 //