________________ // 48 // // 49 // // 50 // // 51 // // 52 // // 53 // आतमज्ञाने मन धरे, वचन-काय-रति छोड। तो प्रकटे शुभ वासना, गुण अनुभवकी जोड योगारंभीकुं असुख, अंतर बाहिर सुख / सिद्धयोगकुं सुख हे, अंतर बाहिर दुःख सो कहीले सो पूछीओ, तामें धरीये रंग / यातें मिटे अबोधता, बोधरूप हुइ चंग नहि कछु इंद्रिय विषयमें चेतनकुं हितकार। तो भी जन तामें रमें, अंधो मोह अंधार मूढातमशुं ते प्रबल, मोहे छांडि शुद्ध / जागते हे ममता भरे, पुद्गलमें निज बुद्धि ताकुं बोधन-श्रम अफल, जाकुं नहि शुभ योग / आप आपकुं बूझवे निश्चय अनुभव भोग परको किस्यो बुझावनो, तुं पर-ग्रहण न लाग। चाहे जेमें बुझनो, सो नहि तुझ गुण भाग. जबलों प्रानी निजमते, ग्रहे वचन मन काय / तबलों हि संसार थिर, भेद-ज्ञान मिटी जाय सूक्ष्म धन जीरन नवे, ज्युं कपरे त्युं देह / तातें बुध मानें नहि, आपनी परिणति तेह हानि वृद्धि उज्ज्वल मलिन, ज्युं कपरे त्युंदेह / तातें बुध माने नहि; अपनी परिणति तेह जैसे नाश न आपको, होत वस्त्रको नाश / तैसे तनुके नाशतें, चेतन अचल अनाश जंगम जग थावर परे, जाकुं भासे नित्त / सो चाखे समता-सुधा, अवर नहि जड-चित्त // 54 // // 55 // // 56 // // 57 // // 58 // // 59 // 171.