________________ मुगति दूर ताकुं नहि, जाकुं स्थिर संतोष। दूर मुगति ताकुं सदा, जाकु अविरति पोष / // 60 // होत वंचन मन चपलता, जनके संग निमित्त / जन-संगी होवे नहि, तातें मुनि जग-मित्त : // 61 // वास नगर वन के विषे; माने दुविध अबुद्ध। आतम-दर्शीकुं वसति, केवल आतम शुद्ध // 62 // आप भावना देहमें, देहांतर गति हेत। आप-बुद्धि जो आपमें, सो 'विदेह' पदं देत // 63 // भवि शिवपद दिइ आपकुं, आपही सन्मुख होई। ... ताते गुरु हे आतमा, अपनो और न कोई // 64 // सोवत हे निज भावमें, जागे ते व्यवहार। सुतो आतम-भावमें, सदा स्वरूपाधारे - // 65 // अंतर चेतन देखके, बाहिर देह स्वभाव / ताके अंतर ज्ञानतें, होइ अचंल द्रढभाव // 66 // भासे आतमज्ञान धुरि, जग उन्मत्त समान / आगे दृढ अभ्यासतें, पथ्थर तृण अनुमान // 67 // भिन्न देहा भाविये, त्युं आपहीमें आप। ज्युं स्वप्नहीमें नहि हुआ, देहातम भ्रमताप // 68 // पुण्य पाप व्रत अव्रत, युगति दोउके त्याग / अव्रत परे व्रत भी त्यजे, तातें धरि शिवराग // 69 // परमभाव प्राप्ति लगे, व्रत धरि अव्रत छोडि / परमभाव रति पाय के, व्रत भी इन में जोडि दहन समें ज्युं तृण दहे, त्युं व्रत अव्रत छेदि। क्रिया शक्ति इनमें नहि, या गति निश्चय भेद . // 71 // 100 // 70 //