________________ // 36 // // 37 // // 38 // // 39 // // 40 // // 41 // नैगमनयकी कल्पना, अपरम-भाव विशेष / परम-भावमें मगनता, अति विशुद्ध नयरेख रागादिक जब परिहरी करे सहज गुण खोज / घटमें भी प्रगटे तदा, चिदानंदकी मोज रागादिक परिणाम-युत, मनहि अनंत संसार / तेहिज रागादिक रहित, जाने परमपद सार / भव-प्रपंच मन-जालकी, बाजी जूठी मूल। चार पांच दिन खुश लगे, अंत धूलकी धूल मोह बागुरी जाल मन, तामें मृग मत होउं। यामें जे मुनि नहि परे, ताकु असुख न कोउं जब निजमन सन्मुख हुआ, चितै न पर गुण दोष। तब बहुराई लगाईए, ज्ञान ध्यान रस पोष अहंकार परमें धरत, न लहे निज गुण गंध / अहंज्ञान निज गुण लगे, छुटे परहि संबंध अर्थ त्रिलिंगी पद लहे, सो नहि आतमरूप। तो पद करी क्युं पाइओ? अनुभवगम्य स्वरूप दिसि दाखी नवि डग भरे, नय प्रमाण पद कोडि। संग चले शिवपुर लगें, अनुभव आतम जोडी आतम-गुण अनुभवत भी, देहादिकतें भिन्न / भूले विभ्रम-वासना, जोरें फिरे न खिन्न देखे सो चेतन नाहि, चेतन नाहि दिखाय / रोष तोष किनसु करे ? आप हि आप बुझाय त्याग ग्रहण बाहिर करे, मूढ कुशल अंतरंग। बाहिर अंतर सिद्धकुं, नहि त्याग अरू संग // 42 // // 43 // // 44 // // 45 // // 46 // // 47 // 170