________________ // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // // 29 // जग जाणे उन्मत्त ओ, ओ जाणे जग अंध / ज्ञानीकुं जगमें रह्यो, यु नहि कोई संबंध . या पर छांहिं ज्ञानकी व्यवहारे ज्युं कहाई। निर्विकल्प तुज रूपमें, द्विधा भाव न सुहाइ युं बहिरातम छांडिके, अंतर-आतम होई / परमातम मति भाविओ, जिहां विकल्प न कोइ . सो में या द्रढ वासना, परमातम पद हेत / इलिका भ्रमरी ध्यान गति, जिनमति जिनपद देत भारे भय पद सोई हे, जिहां जडको विश्वास / जिनसुं ओ डरतो फिरे, सोई अभयपद तास इंद्रिय-वृत्ति निरोध करी, जो खिनु गलित विभाव। देखे अंतर आतमा, सो परमातमभाव देहादिकतें भिन्न में, मोथें न्यारे तेहु / परमातम-पथ दीपिका, शुद्ध भावना एहु . क्रिया कष्ट भी नहु लहे, भेद-ज्ञान-सुखवंत / या बिन बहुविध तप करे, तो भी नहि भव अंत अभिनिवेश पुद्गल विषय, ज्ञानीकुं कहां होत ? / गुणको भी मद मिट गयो, प्रकटत सहज उद्योत धर्म क्षमादिक भी मिटै, प्रगटत धर्मसंन्यास। ते कल्पित भव-भावमें, क्युं नहि होत उदास? रज्जु अविद्या-जनित अहि, मिटे रज्जु के ज्ञान / आतमज्ञाने त्युं मिटे, भाव-अबोध निदान धर्म अरूपी द्रव्यके, नहि रूपी परहेत / अपरम गुन राचे नहि, युं ज्ञानी मति देत // 30 // // 31 // // 32 // // 33 // // 34 // // 35 // 169