________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 17 // देहादिक आतम-भ्रमें, कल्पे निज पर भाव। आतम-ज्ञानी जग लहे, केवल शुद्ध स्वभाव स्व-पर विकल्पे वासना, होत अविद्यारुप। ताते बहुरी विकल्पमय, भरम-जाल अंधकूप / पुत्रादिककी कल्पना, देहातम-भ्रम भूल / ताकुं जड संपत्ति कहे, हहा मोह प्रतिकूल या भ्रम-मति अब छांडि दो, देखो अंतर-दृष्टि / मोह-दृष्टि जो छोडिओ, प्रगटे निज-गुण-सृष्टि रुपादिकको देखवो, कहन कहावन कूट। इंद्रिय योगादिक बले, ए सब लूटलूट परपद आतम द्रव्यकुं, कहन सुनन कछु नाहि / चिदानंद-घन खेल ही, निजपद तो निजमाहि ग्रहण अयोग्य आहे नहि, ग्रह्यो न छोडे जेह। जाणे सर्व स्वभावतें, स्वपर-प्रकाशक तेह / रूपेके भ्रम सीपमें, ज्युं जड करे प्रयास। . देहातम-भ्रमतें भयो, त्युं तुज कूट अभ्यास मिटे रजत भ्रम सीपमें, जन-प्रवृत्ति जिम नाहि / न रमे आतम-भ्रम मिटे, त्युं देहादिकमांहि फिरे अबोधे कंठगत, चामीकरके न्याय / ज्ञान-प्रकाशे मुगति तुज, सहज सिद्धि निरुपाय या बिन तु सूतो सदा, योगे भोगे जेण / रूप अतींद्रिय तुझ ते, कही शके कहो केण? देखे भाखे ओर करे, ज्ञानी सबहि अचंभ। व्यवहारे व्यवहारस्युं, निश्चयमें थिर थंभ 168 // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 //