________________ // 1 // // 2 // // 3 // // 4 // महोपाध्यायश्रीयशोविजयजीविरचितम् * ॥समाधिशतक॥ समरी भगवती भारती, प्रणमी जिन जग बंधु / केवल आतम बोधको, करशुं सरस प्रबंध केवल आतम-बोध हे, परमारथ शिव-पंथ / तामे जिनकुं मगनता, सोई-भाव निग्रंथ भोग ज्ञान ज्युं बालको, बाह्य ज्ञानकी दोर। तरुण भोग अनुभव जिस्यो, मगन-भाव कछु ओर आतम-ज्ञाने मगन जो, सो सब पुद्गल खेल / इंद्रजाल करि लेखवे, मिले न तिहा मन-मेल ज्ञान बिना व्यवहार को, कहा बनावत नाच?। रत्न कहो कोउ काचकुं, अंत काच सो काच राचे साचे ध्यनमें, याचे विषय न कोई।। नाचे माचे मुगति - रस, 'आतम-ज्ञानी' सोइ. बहिर अंतर परम ए, आतम-परिणति तीन / देहादिक आतम-भरम, बहिरातम बहु दीन चित्तदोष आतम-भरम, अंतर आतम खेल / अतिनिर्मल परमात्मा, नहि कर्म को भेल . नरदेहादिक देख के, आतम-ज्ञाने हीन / . . इंद्रिय बल बहिरातमा, अहंकार मन लीन अलख निरंजन अकल गति; व्यापि रह्यो शरीर / लख सुज्ञाने आतमा, खीर लीन ज्युं नीर अरि मित्रादिक कल्पना, देहातम अभिमान / निज पर तनु संबंध मति, ताको होत निदान 10 // 7 // // 8 // // 9 // // 10 // // 11 //