________________ योगग्रंथ जलनिधि मथो, मन करी मेरु मथान / समता अमरत पाइके, हो अनुभौ रसु जान // 96 // उदासीन मति पुरुष जो, समतानिधि शुभ वेष / छोरत ताकुं क्रोध किधु, आपही कर्म अशेष // 97 // शुद्ध योग श्रद्धान धरी, नित्य करमको त्याग / प्रथम करि जो मूढ सो, उभय भ्रष्ट निरभाग // 98 // क्रिया मूढ जूठी क्रियां, कर न थापे ग्यान। / क्रिया भ्रष्ट ईक ग्यान मत, छेदे क्रिया अजान .. // 99 // ते दोनूं थे दूरि शव, जो निज बल अनुसार। मारग रुचि मारग रहि, सो शिव साधणहार // 10 // निवृत्ति ललनाको सहज, अचरजकारी कोई / जो नर याकुं रुचत है, याकुं देखे सोइ // 101 // मन पारद मुरछित भयो, समता औषधि आई। सहिज (सहस्र) वेधि रस परमगुन, सोवन सिद्धि कमाइ // 102 // बहुत ग्रंथ नय देखिके, महापुरुष कृत सार। विजयसिंहसूरि किओ, समताशतको हार / // 103 // भावत याको तत्त्व मन, हो समता रस लीन / ज्युं प्रकटे तुझ सहज सुख, अनुभौ गम्य अहीन // 104 // कवि जसविजय सुसीख ए, आप आपकुं देत / साम्यशतक उद्धार करि हेमविजय मुनि हेत / / 105 // 18C