________________ - || 84 // / / 85 // // 86 // // 87 // // 88 // // 89 // दंभही जनित असंगता, इहभवके सुख दे। दंभरहित निस्संगता, कौन दूर सुख दे मत हो संगनिवृत्तकुं, प्रेम परमगति पाई। ताको समता रंग पुनि, किनही कह्यौ न जाई तिसना विद्रुम वल्लिघन, विषय घुमर बहु जोर। भीम भयंकर खेद जल, भवसायर चिहु ओर चाहे ताको पार तो, सज करि समता नाउ। शील अंग दृढ पाटिए सहस अढार बनाउ कूआथंभ शुभ योग परि, बइठि मालिम ग्यान / अध्यातम सढ़ि बलि चलै, संयम पवन प्रमान योगी जे बहु तप करे, खाइ झुरे तरुपात / उदासीनता विनु भसम, हुतिमै सो भी जात छूटि भवके जालथै, जिम नहि तप करे लोक। . सो भी मोहे काहुकुं, देत जनमको शोक विषय उपद्रव सब मिटे, होवत सुख संतोष / ताते विषयातीत है, देत शान्तरस पोष बिनु लालचि बश होत है, वशा बात एह साच / याते करइ निरीह कें, आगे-सम रती नाच . दिई परिमल समता लता, वचन अगोचर सार। नित्त बिइर भी जिहां वसे, लहि प्रेम म(स)हकार सेना राखस मोहकी, जीपि सुखि प्रबुद्ध / ब्रह्मबानीक (ब्रह्मबान इक) लेइकि, समता अंतर शुद्ध कवि मुखं कलपित अमृतके, रसमें मूझत काहि / भजो एक समतासुधा, रति धरि शिवपद माहि // 90 // // 91 // // 92 // // 93 // // 94 // // 95 //