________________ // 72 // // 73 // // 75 // // 76 // // 77 // भवको सुख संकल्पभव, कृत्रिम जिस्यो (जिसो) कपूर / रंजत है जन मुगधकुं, वरजित ग्यांन अंकुर गुन ममकारन बस्तुको, सो वासना निमित्त / मांने सुतमें सुत अधिक, दोरत हैं हित चित्त मन कृत ममता जूठ हे, नहीं वस्तु परजाय। नहि तो बस्तु बिकाईथै, क्युं ममता मिटि जाय ? . जन जनकी रुचि भिन्न है, भोजन कूर कपूर। भागवंतकुं जो रुचइ, करभ करे सो दूर / करभ हसे नृप भोगकुं, हसै करभकुं भूप / . उदासीनता बिनु नहीं, दोउकुं रति रूप परमे राचे पररुचि, निजरुचि निजंगुनमाहि। खेले प्रभु आनंदघन, धरि (री) समता गल बाहि मायामय जगको कह्यो, जिहां सबकी विस्तार / ग्यानीकुं होबत कहां, तहां शोक को चार सोचत नांहि अनित्यमति, होवत माल मलान / भांडे भी सोचत भगै, धरत नित्य अभिमान कूट वासना गठित है, आसा (शा) तंतु वितान / छेदे ताकुं शुभमती, कर धरि बोध कृपांन जननी मोह अंधारकि, माया रजनी कूर। ग्यांन भांन आलोकति, ताकुं कीजे दूर उदासीनता मगन हुई, अध्यातम रस कूप / देखे नहि कबु और जब, तब देखे निज स्वरूप आगे करी निस्संगता, समता सेवत जेहु। .. रमै परम आनंदरस, सत्ययोगमै तेहु // 78 // // 79 // // 80 // // 81 // // 82 // // 83 // 164