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________________ // 60 // // 61 // // 62 // // 63 // // 64 // // 65 // विषै त्यजि सौ सब त्यजि, पातक दोष वितान / जलधि तरत नकि क्युं तरेइ, तटिनी गंग समान चाटे निज लालामिलित, शुष्क अस्थि ज्युं श्वान / तेसें राचे विषयमें, जड निज रुचि अनुमान भूषन बहुत बनावतै, चंदन चरचत देह / वंचत आप ही आपकुं, जड धरि पुद्गल नेह दुरदम मनके जय किये, इन्द्रिय जय सुख होत / तातें मनजय करणकुं, करो विचार उद्योत विषयग्रामकी सीममें, इच्छाचारि चरंत / जिनआना अंकुश करी, मन गज बस करु संत एक भाव मन पौनको, जुठ कहे ग्रंथकार / यातें पवनहितें अधिक, होत चित्तको चार जामें राचे ताहिमें, बिरचै (ते) करि चित चार। इष्ट अनिष्ट न विषयको, युं निहयें निरधार केवल तामें करमको, राग द्वेष ते बंध। परमें निज अभिमान धरि, काहि फिरतु है अंध जईसै ललना ललितमें भाव धरतु (त) है सार। तइस मैत्री प्रमुखमें, चित धरि करि सुविचार बाहिर बहुरि कहा फिरै, आपहिमें हित देखि। मृगतृष्णासम विषयको, सुख सब जानि उवेखि प्रिय अप्रिय व्यवहार निज, रुचि रस साचो नाहि / अंगज वल्लभ सुत भयो, यूकादिक नहि काहि होवत सुख नृप रंककुं, नोबत.सुनत समान / इक भोगे इक नाहि सो, बढ्यो चित अभिमान 163 // 66 // // 67 // / / 68 // // 69 // // 70 // // 71 //
SR No.004456
Book TitleShastra Sandesh Mala Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2005
Total Pages314
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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