________________ // 24 // .. // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // - // 29 // क्षमासार चंदन रसे सींचो चित्त पवित्त। .. दयावेल मंडप तले, रहो लहो सुख मित्त . याको भाजे शम वधू, खिमा सहजमें जोर। क्रोध जोध किउं करि करि, सो अपनो बल सोर देत खेद वरजित खिमा, खेद रहित सुखराज / इनमें नहि संदेह कछु, कारन सरिखो काज परबत गरव शिकर चड्यो, गुरुकुं भी लघु रूप / कहि तिहां अचरज किश्यो? कथन ग्यांन अनुरूप आठ शिखर गिरिराज के, ठामे विमलालोक / तो प्रकाश सुख क्युं लहे ? विषम मानवश लोक मान महीधर छेद तुं, कर(रि) मृदुता पविघात / ज्युं सुख मारग सरलता, होवि चित्त विख्यात मृदुता कोमल कमलथे, वज्रसार अहंकार / छेदत हे इक पलकमें, अचरज एह अपार विकसित माया बेलि घर, भव अटवी के बीच।। सोवत हे नित मूढ नर, नयन ग्यान के मीच कोमलता बाहिर धरत, करत वक्रगति चार। माया सापिणि जग डसे, ग्रसे सकल गुनसार ताके निग्रह करनकुं, करो जु चित्त विचार / समरो ऋजुता जंगुली, पाठसिद्ध निरधार लोभ महातरु सिर चढी, बढी जु तिसना वेलि। खेद कुसुम विकसित भई, फले दुःख रिउ मेलि लोभ मेघ उन्नत भये, पाप पंक बहु होत। धरम हंस रति नहु लहै, रहे न ग्यांन उद्योत . // 30 // // 32 // // 33 // . // 34 // // 35 // 160