________________ / / 36 // // 37 // // 38 // // 39 // // 40 // // 41 // आगर सबही दोषको, गुन धनको बडचोर / व्यसन बेलिको कंद है, लोभ पास चिहुं ओर कोउ सयंभूरमनको, ने नर पावइ पार / सो भी लोभसमुद्दको, लहे न मध्यप्रचार मनसंतोष अगस्तिकुं, ताके शोष निमित्त / नितु सेवो जिनि सो कियो, निज जल अंजलि मित्त याकी लालचि तुं फिरे, चित ! इत उत डमडोल / ता लालचि मिटि जात घट, प्रकटि सुख रंगरोल धन मानत गिरिमृत्तिका, फिरत मूढ दूरध्यान / अखय खजानो ग्यांनको, लख न सुख निदान होत न विजय कषायको, बिनु इन्द्रिय वशि कीन / तातै इन्द्री वश करै, साधु सहज गुणलीन आपि काजि परसुख हरे, धरे न कोस्युं प्रीति / इन्द्रिय दुरजन परि दहै, वहै न धर्म न नीति अथवा दुरजन थें बुरे, इह परभव दुःखकार। . इन्द्रिय दुरजन देतु है, इह भवि दुःख इकवार नयन फरज जनु तनु लगें, दहि द्रष्टिविष साप / तिनसुं भी पापी विषे, सुमरे करि, संताप इच्छाचारी विषयमें, फिरतें इन्द्रिय ग्राम। ... बश कीजै पगमें धरी, यंत्र ग्यान परिणाम उनमारगगामी असब, इन्द्रिय चपल तुरंग / खेंची नरग अरण्यमें, लिइ जाइ निज संग जे नजीक है श्रमरहित, आपही (हि) में सुख राज / बाधत है ताकुं करन, आप अरथ के काज 171 // 42 // // 43 // // 44 // // 45 // // 46 // // 47 //