________________ // 1 // // 2 // // 3 // . // 4 // महोपाध्यायश्रीयशोविजयजीविरचितम् ॥समताशतक॥ समता गंगा मगनता, उदासीनता जात / चिदानंद जयवंत हो, केवलभानु प्रभात सकल कलामें सार लय, रहो दूर थिति ओह। . अकल योगमें सकल, लय देर ब्रह्म विदेह चिदानंद विधुकी कला, अमृतबीज अनपाय / जाने केवल अनुभवी, किनही कही न जाय तो भी आश्रव तापके, उपशम करन निदान / बरषतहुं ताके वचन, अमृतबिंदु अनुमान उदासीनता परिनयन, ग्यां(ग्या)न ध्या(ध्या)न रंगरोल / अष्ट अंग मुनि ! योगको, ओही अमृत निचोल अनासंगमति विषयमें, रागद्वेषको छेद। सहजभावमें लीनता, उदासीनता भेद ताको कारन अममता, तामे मन विसराम। . करे साधु आनंदघन, होवत आतमराम ममता थिर सुख शाकिनी, निरममता सुख मूल। . ममता शिव प्रतिकूल है, निरममता अनुकूल ममता विष मूर्छित भये, अंतरंग गुन वृंद / जागे भावि विरागता, लगन अमृतके बुंद पर (रि)नति विषय विरागता, भवतरु मूलकुठार। ता आगे कयुं करि रहे, ममता वेलि प्रचार हहा ! मोहकी वासना, बुधकु भी प्रतिकूल / * या केवल श्रुतअंधता, अहंकारको मूल // 6 // // 7 // // 8 // // 9 // // 10 // // 11 // 158