________________ दोषत्रयमयः सैषः, संस्कारो विषमज्वरः। . मेदुरीभूयते येन, कषायक्वाथयोगतः // 30 // तत्कषायानिमांश्छेत्तु-मीश्वरीमविनश्वरीम् / पावनां वासनामेना-मात्मसात्कुरुत द्रुतम् // 31 // स्पष्टं दुष्टज्वर: क्रोध-श्चैतन्यं दलयनयम् / सुनिग्राह्यः प्रयुज्याशु, सिद्धौषधिमिमां क्षमाम् // 32 // आत्मनः सततस्मेर-संदानन्दमयं वपुः। . स्फुरल्लकानिलस्फातिः, (स्फुरदुल्कानलस्फातिः) कोपोऽयं ग्लपयत्यहो व्यवस्थाप्य समुन्मील-दहिंसावल्लिमण्डपे / निर्वापय तदात्मानं, क्षमाश्रीचंदनद्रवैः // 34 // क्रोधयोधः कथङ्कार-महङ्कारं करोत्ययम् / लीलयैव पराजिग्ये, क्षमया रामयापि च (यः) // 35 // भर्तुः शमस्य ललितै-बिभ्रती प्रीतिसम्पदम् / नित्यं पतिव्रतावृत्तं, क्षान्तिरेषा निषेवते // 36 // कारणानुगतं कार्य-मिति निश्चिनु मानस ! / निरायासा सुखं सूते, यनिःक्लेशमसौ क्षमा // 37 // अखर्वगर्वशैलान-श्रृङ्गादुद्धरकन्धरः / पश्यन्नहंयुराश्चर्य, गुरूनपि न पश्यति // 38 // उच्चस्तरमहङ्कार-नगोत्सङ्गमसौ श्रितः / युक्तमेव गुरून्मानी, मन्यते यल्लघीयसः // 39 // तिरयन्नुज्ज्वलालोक-मभ्युन्नतशिराः पुरः। निरूणद्धि सुखाधानं, मानो विषमपर्वतः // 40 // 141