________________ // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 // शरीरकेऽपि दुःखाय मोहमाधाय तत्परा / क्लिश्यन्ते जन्तवो हन्त ! दुस्तरा भववासना अहो ! मोहस्य माहात्म्यं, विद्वत्स्वपि विजृम्भते / अहङ्कारभवात्तेषां यदन्धङ्करणं श्रुतम् श्रुतस्य व्यपदेशेन, विवर्तस्तमसामसौ / अन्तः सन्तमसः स्फाति-र्यस्मिन्नुदयमियुषि केषाञ्चित्कल्पते मोहाद्, व्यावभाषीकृते श्रुतम् / पयोऽपि खलु मन्दानां, सन्निपाताय जायते ममत्वपङ्कं निःशवं, परिमाष्टुं समन्ततः / वैराग्यवारिलहरी-परीरम्भपरो भव रागोरगविषज्वाला-वलीढदग्धचेतनः / न किञ्चिच्चेतति स्पष्टं, विवेकविकलः पुमान् तद्विवेकसुधाम्भोधौ, स्नायं स्नायमनामयः / विनयस्व स्वयं राग-भुजङ्गममहाविषम् . बहिरन्तर्वस्तुतत्त्वं, प्रथयन्तमनश्वरम् / विवेकमेकं कलये-त्तार्तीयीकं विलोचनम् उद्दामक्रममाबिभ्रद्, द्वेषदन्तावलो बलात् / धर्माराममयं भिन्द-नियम्यो जितकर्मभिः सैष द्वेषशिखी ज्वाला-जटालस्तापयन्मनः / / निर्वाप्यः प्रशमोद्दाम-पुष्करावर्तसेकतः वश्या वेश्येव कस्य स्या-द्वासना भवसंभवा / विद्वांसोऽपि वशे यस्याः, कृत्रिमैः किल किञ्चितैः यावज्जागर्ति सम्मोह-हेतुः संसारवासना। निर्ममत्वकृते तावत्, कुतस्त्या जन्मिनां रुचिः . . 141 // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // // 29 //