________________ // 60 // // 61 // // 62 // // 63 // // 64 // // 65 // रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः। . वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां कल्याणेतः स्ववानतः। अप्यपूर्वार्थसिद्ध्येगां कल्याकृत भवान् युतः भवत्येव धरा मान्या सूद्यातीति न विस्मये। .. देवदेव पुरा धन्या प्रोद्यास्यति भुवि श्रिये एतच्चित्रं पुरो धीर स्नपितो मन्दरे शरैः / जातमात्रः स्थिरोदार क्वापि त्वममरेश्वरैः तिरीटघटनिष्ठ्यूतं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् / / पदे स्नातः स्म गोक्षीरं तदेडित भगोश्चिरम् कुत एतो नु सन् वर्णो मेरोस्तेपि च संगतेः / उत क्रीतोथ संकीर्णो गुरोरपि तु संमते: हृदि येन धृतोसीनः स दिव्यो न कुतो जनः / त्वयारूढो यतो मेरुः श्रिया रूढो मतो गुरुः चक्रपाणेदिशामूढा भवतो गुणमन्दरम् / के क्रमेणेदृशा रूढाः स्तुवन्तो गुरुमक्षरम् त्रिलोकीमन्वशास्सङ्गं हित्वा गामपि दीक्षितः / त्वं लोभमप्यशान्त्यङ्गं जित्वा श्रीमद्विदीशितः केवलाङ्गसमाश्लेषबलाढ्य महिमाधरम् / तव चाङ्गं क्षमाभूषलीलाधाम शमाधरम् त्रयो लोकाः स्थिताः स्वैरं योजनेधिष्ठिते त्वया / भूयोन्तिकाः श्रितास्तेरं राजन्तेधिपते श्रिया परान् पातुस्तवाधीशो बुधदेव भियोषिताः / दूराद्धातुमिवानीशो निधयोवज्ञयोज्झिताः // 66 // // 67 // // 68 // // 69 // // 70 // // 71 //