________________ // 45 // // 46 // // 47 // // 48 // // 49 // // 50 // श्रुतं मत्युपलब्धार्थ-मतिसङ्गतमेव तत् / तादृशं स्यात्तदाऽन्यत्तु, श्रुतं यदि समं भणेत् / केचिदाहुवल्कसमां, मति, सुम्बसमं श्रुतम् / तदयुक्तं तथाऽभेदे, श्रुतोच्छेदादिदूषणात् द्रव्यभावश्रुते भेत्तुं, युज्येते नैतया दिशा / मतिद्रव्यश्रुते वा यद्, ज्ञानभेदेऽत्र मृग्यते नाऽयं न्यायः पृथग्भावे, तयोर्गुणकथा वृथा। मतिर्वल्कं ततो भाव-श्रुतं सुम्बमिति स्थितिः दृष्टान्तेनाऽमुनाऽभेदा-श्लिष्टभेदप्रदर्शनम् / विशेषोऽस्य ततो हेतु-फलभावप्रदर्शनात् अनक्षराक्षरभेदादुक्तावन्ये मतिश्रुते / तदसत्साभिलापा य-न्मतिरेवं विलीयते श्रुतनिश्रितभावेन, मतिरेषा यदि श्रुतम् / तटवग्रहरूपैव, मतिरन्यच्छ्रुतं भवेत् श्रुतोदितविवेकश्चे-न्मतिरेवं श्रुतोच्छिदा। योगपद्यं द्वयोर्भावे, एकदा चोपयोगयोः श्रुताभ्याससमुद्बुद्ध-क्षयोपशमसम्भवम् / श्रुतानुसारहीनं यत्, तदेवाऽश्रुतनिश्रितम् द्विविधापि मतिस्तस्माद्, द्विरूपैवेति का भिदा। तद्रव्याक्षरभेदेन, भावनीया भिदाऽनयोः द्रव्यश्रुतव्यवहते, र्भावाभावे विभिन्दतः / मतिश्रुते इतरथा, व्यवहारस्य सङ्करात् स्वपरज्ञप्तिहेतुत्वात्, तयोर्मूकान्यवद्भिदा। चेष्टादिमतिहेतोर-प्यन्यार्थत्वान्न युज्यते 133 // 51 // // 52 // // 53 // // 54 // // 55 // // 56 //