________________ // 87 // // 88 // // 89 // // 90 // // 91 // // 92 // सध्यानादेविरहे, गृहवासस्तत्त्वतोऽन्यथा दीक्षा / प्रव्राजकस्य नं ततः, सद्वैद्यस्येव दोषोऽपि इत्थं प्रव्रजितः सन्, सूत्रोक्तां प्रतिदिनं क्रियां कुर्वन् / चारित्रे स समर्थो, मुनिव्रतस्थापनार्हः स्यात् समा, मुतिस्थापनाह: स्यात् अधिगतशस्त्रपरिज्ञा-सूत्रार्थोऽनुक्तवर्जको योग्यः / षट्कं स त्रिविशुद्धं, नवभिर्भेदैः परिहरेच्च अप्राप्तेऽर्थमकथय-ननभिगतार्थेऽपरीक्षिते यस्तु / स्थापयति व्रतभारं, प्राप्नोत्याज्ञाविरोधमसौ शैक्षस्य भुवस्तिस्रः, सप्ताहोरात्रका जघन्याऽत्र / षण्मासिक्युत्कृष्टा, मध्यमिका स्याच्चतुर्मासा करणजयाय पुराणे, प्रथमा दुर्मेधसः प्रतीत्यान्या / अनधिगमादिविशेषे, शिष्टाभिज्ञे पुराणेऽपि एनां भुवमप्राप्तं, य उपस्थापयति तथा तथाऽऽप्तमपि / रागाद्वा द्वेषाद्वा, नोपस्थापयति स विरोधी . पुत्राश्च विलम्बः, पित्रादिभ्यः स्मृतस्त्रिपञ्चाहः / अप्रज्ञाप्यतया नो, परतोपीष्टोऽबहुद्वेषे ईदृश्यपि समभावो, व्यवहारात् कर्मभेदतोऽशुद्धः / अतिचारात् सज्वलनै-राकर्षाद्वाऽन्यथोच्छेदः तद्विरहेऽपि च महतां, प्रकृत्यतिक्लेश र्जनौचित्यम् / लोकविरुद्धत्यागा - च्छासनमानश्च विपुलफलः कायव्रतकथनविधौ, हेतुमुपदर्शयेद् यथा पृथिवी / मांसाङ्कुरसमरूपा-कुरोपलम्भेन जीवमयी भूखातस्वाभाविक-जनुषो दर्दुरकवज्जलं च तथा / व्योमोद्भवस्य पातात्, स्वभावतो मत्स्यवद्वापि 103 // 93 // // 94 // // 95 // // 96 // // 97 // // 98 //