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________________ // 40 // // 43 / / अन्ये त्वत्र जनस्य, स्वजनविरहितस्य योग्यतां ब्रुवते / तद्विलपनादि पापं, त्यागे खलु पालनीयस्य // 39 // तदसदिहापि हि पापं, प्राणवधाद् यत्स पालनेऽभ्यधिकः। आरम्भतः स्वतत्त्वे, स्वपरविभागश्च नावगते सत्त्वौघप्रव्रजतो-रारम्भत्यागसृष्टितातौल्यम् / अभ्युपगमवादोऽयं, न विधित्यागेऽल्पदोषोऽपि // 41 // अन्ये त्वाहुः सुखिनां, प्रव्रज्या फलवती न चान्येषाम् / नात्यक्तभोगविभवाः, पात्रं गम्भीरभावस्य // 42 // अधिकतरं प्रव्रज्या-पर्यायं प्राप्य ते हि माद्यन्ति / क्षुद्रप्रव्रज्यातो, लोके धर्मोपघातोऽपि एतदपि मुग्धविस्मय-करं न युक्तिक्षमं तु मतमुच्चैः / अविवेकपरित्यागात्, त्यागी यन्निश्चयनयस्य // 44 // अविवेकपरित्यागात्, पालयति मुनिक्रियां स भावेन / संज्ञाभेदात् त्यक्त-ग्रहणं ह्यविवेकशक्तिकृतम् . // 45 // ध्वनिभेदेऽपि सपापं, प्रकृतेन तु हितं हि मधुरकादीव / सापेक्षस्य यतनया, तदनुमतिर्नैव विहितार्थे गुणधर्मानुपघातौ, नि:स्वस्याप्यपगताविवेकस्य / सूत्रन्तु व्यवहारात्, युक्तो हुस्तत्र वाऽप्यर्थः प्रतिबन्धत्यागपरो, बाह्यत्यागेऽपि तेन युक्तमदः / जिनधर्मोन्नतिकारण-मुभयत्यागी तु धन्यतरः इक्षुवने जिनभवने, समवसृतौ क्षीरवृक्षवनखण्डे / गम्भीरसानुनादे, दीक्षा देया शुभे क्षेत्रे // 49 // शून्ये गृहेऽमनोज्ञे, न तु भग्ने ध्यामिते स्मशाने वा / क्षाराङ्गरावकरा-मेघ्यादिद्रव्यदुष्टे वा // 50 // // 46 // // 47 // // 48 // CG
SR No.004455
Book TitleShastra Sandesh Mala Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2005
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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