________________ . // 7 // | // 8 // स्याद्वादास्वादपराः, प्रतियन्ति हि परमतानि विरसानि / नहि माकन्दमुकुलभुग, नन्दति पिचुमन्दतरुषु पिकः // 3 // वस्तुविनिश्चयपटुना, स्याद्वादेनैव देशना देया / / इत्युत्सर्गस्थितिरिय-मपरा त्वपवादमर्यादा .. // 4 // अत एव दिदेश तथा, कथासु धीरो यथार्थकथनपटुः / एकद्वित्वादिविधौ, भगवानपि सोमिलप्रश्ने // 5 // उत्सर्गान्निश्चयतो, वाचामाचारचातुरीति मतम् / तदनेकनयमयत्वे, युक्तमितरथा तु न कथञ्चिन् . // 6 // तत्त्वाङ्गव्यवहारा-दयमपि येन प्रमाणतो भजते / ... अंशधिया तु नयत्व-व्यपदेशस्तत्र तन्त्रविदाम् कुमततमोपहतदृशो, जगतो भूतार्थबोधविमुखस्य / आदौ दर्शयति गुरु-निश्चयमतिदीपिकामथवा निश्चयतो निश्चयभाग, मत्त इव भिनत्ति यश्चरणमुद्राम् / तस्य पदे व्यवहारो, वज्रमयी शृङ्खला क्षेप्या // 9 // अव्यवहारिणि जीवे, निश्चयनयविषयसाधनं नास्ति / ऊषरदेशे कथमपि, न भवति खलु शस्यनिष्पत्तिः . // 10 // व्यवहारप्रतिभासो, दुर्नयकृबालिशस्य भवबीजम् / व्यवहाराचरणं पुन-रनभिनिविष्टस्य शिवबीजम् // 11 // गुरुपरतन्त्रस्यातो, माषतुषादेः पुमर्थसंसिद्धिः / स्फटिक इव पुष्परूपं, तत्र प्रतिफलति गुरुबोधः // 12 // व्यवहारवतस्तनुरपि, बोधः सितपक्षचन्द्र इव वृद्धिम् / / इतरस्य याति हानिं, पृथुरपि शितिपक्षचन्द्र इव / // 13 // अवगतसमयोपनिषद्-गुरुकुलवासः सतां सदा सेव्यः / आचारादौ निगदित-माद्यं व्यवहारबीजमिदम् // 14 // GS