________________ // 21 // // 22 // // 23 // = // 24 // . // 25 // // 26 // पुण्यबीजं नयत्येवं तत्त्वश्रुत्या सदाशयः / . भवक्षाराम्भसस्त्यागावृद्धि मधुरवारिणा तत्त्वश्रवणतस्तीवा गुरुभक्तिः सुखावहा / समापत्त्यादिभेदेन तीर्थकृद्दर्शनं ततः कर्मवज्रविभेदेनानन्तधर्मकगोचरे / . वेद्यसंवेद्यपदजे बोधे सूक्ष्मत्वमत्र न अवेद्यसंवेद्यपदं चतसृष्वासु दृष्टिषु / पक्षिच्छायाजलचरप्रवृत्त्याभं यदुल्बणम् / वेद्यं संवेद्यते यस्मिन्नपायादिनिबन्धनम् / . पदं तद्वेद्यसंवेद्यमन्यदेतद्विपर्ययात् अपायशक्तिमालिन्यं सूक्ष्मबोधविघातकृत् / न वेद्यसंवेद्यपदे वज्रतण्डुलसन्निभे तच्छक्तिः स्थूलबोधस्य बीजमन्यत्र चाक्षतम् / तत्र यत्पुण्यबन्धोऽपि हन्तापायोत्तरः स्मृतः प्रवृत्तिरपि योगस्य वैराग्यान्मोहगर्भतः / प्रसूतेऽपायजननीमुत्तरां मोहवासनाम् अवेद्यसंवेद्यपदे पुण्यं निरनुबन्धकम् / / भवाभिनन्दिजन्तूनां पापं स्यात्सानुबन्धकम् कुकृत्यं कृत्यमाभाति कृत्यं चाकृत्यमेव हि / अत्र व्यामूढचित्तानां कण्डूकण्डूयनादिवत् एतेऽसच्चेष्टयात्मानं मलिनं कुर्वते निजम् / बडिशामिषवत्तुच्छे प्रसक्ता भोगजे सुखे अवेद्यसंवेद्यपदं सत्सङ्गागमयोगतः / तदुर्गतिप्रदं जेयं परमानन्दमिच्छता 192 .. // 27 // // 28 // // 29 // // 30 // // 31 // - // 32 //