________________ सामनरः / // सूक्ष्मबुद्ध्यष्टकम् // 21 // सूक्ष्मबुद्ध्या सदा ज्ञेयो धर्मो धर्मार्थिभिनरैः / अन्यथा धर्मबुद्ध्यैव तद्विघातः प्रसज्यते // 161 // गृहीत्वा ग्लानभैषज्यप्रदानाभिग्रहं यथा / तदप्राप्तौ तदन्तेऽस्य शोकं समुपगच्छतः // 162 // गृहीतोऽभिग्रहः श्रेष्ठो ग्लानो जातो न च क्वचित् / अहो मेऽधन्यता कष्टं न सिद्धमभिवाञ्छितम् // 163 // एवं ह्येतत्समादानं ग्लानभावाभिसन्धिमत् / साधूनां तत्त्वतो यत्तद्दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः // 164 // लौकिकैरपि चैषोऽर्थो दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः / प्रकारान्तरतः कैश्चिद्यत एतदुदाहृतम् // 165 // "अङ्गेष्वेव जरां यातु यत्त्वयोपकृतं मम / नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम्" // 166 // एवं विरुद्धदानादौ हीनोत्तममतेः सदा / . प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायबाधिते // 167 // द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि / सम्यग्माध्यस्थ्यमालम्ब्य श्रुतधर्मव्यपेक्षया . // 168 // // भावशुद्धयष्टकम् // 22 // भावशुद्धिरपि ज्ञेया यैषा मार्गानुसारिणी / प्रज्ञापनाप्रियात्यर्थं न पुनः स्वाग्रहात्मिका // 169 // रागो द्वेषश्च मोहश्च भावमालिन्यहेतवः / एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः // 170 // तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन् शुद्धि शब्दमात्रकम् / स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितं नार्थवद्भवेत् // 171 // 87