________________ // 118 // तस्यापि हिंसकत्वेन न कश्चित्स्यादहिंसकः / जनकत्वाविशेषेण नैवं तद्विरतिः क्वचित् उपन्यासश्च शास्त्रेऽस्याः कृतो यत्नेन चिन्त्यताम् / विषयोऽस्य यमासाद्य हन्तैष सफलो भवेत् अभावेऽस्या न युज्यन्ते सत्यादीन्यपि तत्त्वतः / अस्याः संरक्षणार्थं तु यदेतानि मुनिर्जगौ // 119 // // 120 // // नित्यानित्याष्टकम् // 16 // // 121 // // 122 / / // 123 // // 124 // नित्यानित्ये तथा देहाद्भिन्नाभिन्ने च तत्त्वतः / / घटन्त आत्मनि न्यायाद्धिसादीन्यविरोधतः पीडाकर्तृत्वयोगेन देहव्यापत्त्यपेक्षया / तथा हन्मीतिसंक्लेशाद्धिसैषा सनिबन्धना हिंस्यकर्मविपाकेऽपि निमित्तत्वनियोगतः / . हिंसकस्य भवेदेषा दुष्टा दुष्टानुबन्धतः / ततः सदुपदेशादेः क्लिष्टकर्मवियोगतः / शुभभावानुबन्धेन हन्तास्या विरतिर्भवेत् अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी / एतत्संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्यादिपालनम् / स्मरणप्रत्यभिज्ञानदेहसंस्पर्शवेदनात् / . अस्य नित्यादिसिद्धिश्च तथा लोकप्रसिद्धितः देहमात्रे च सत्यस्मिन् स्यात्संकोचादिधर्मिणि / धर्मादेरूर्ध्वगत्यादि यथार्थं सर्वमेव तु विचार्यमेतत्सद्बुद्ध्या मध्यस्थेनान्तरात्मना / प्रतिपत्तव्यमेवेति न खल्वन्यः सतां नयः // 125 // // 126 // // 127 // // 128 //