________________ // 33 // // 34 // // 35 // // भिक्षाष्टकम् // 5 // सर्वसंपत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा / वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा विधोदिता यतिर्ध्यानादियुक्तो यो गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः / सदानारम्भिणस्तस्य सर्वसंपत्करी मता वृद्धाद्यर्थमसङ्गस्य भ्रमरोपमयाटतः / गृहिदेहोपकाराय विहितेति शुभाशयात् प्रव्रज्यां प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्तते / असदारम्भिणस्तस्य पौरुषघ्नीति कीर्तिता धर्मलाघवकृन्मूढो भिक्षयोदरपूरणम् / करोति दैन्यात् पीनाङ्गः पौरुषं हन्ति केवलम् . नि:स्वान्धपङ्गवो ये तु न शक्ता वै क्रियान्तरे / भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थं वृत्तिभिनेयमुच्यते नातिदुष्टापि चामीषामेषा स्यान्न ह्यमी तथा / अनुकम्पानिमित्तत्वाद्धर्मलाघवकारिणः दातॄणामपि चैताभ्यः फलं क्षेत्रानुसारतः / विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः // 36 // // 37 // // 38 // // 39 // = // 40 // // पिण्डाष्टकम् // 6 // अकृतोऽकारितश्चान्यैरसंकल्पित एव च / यतेः पिण्ड: समाख्यातो विशुद्धः शुद्धिकारक: यो न संकल्पितः पूर्वं देयबुद्ध्या कथं नु तम् / ददाति कश्चिदेवं च स विशुद्धो वृथोदितम् // 41 // // 42 // 75