________________ // 455 // // 456 // // 457 // // 458 // // 459 // // 460 // दिदृक्षा विनिवृत्तापि नेच्छामात्रनिवर्तनात् / पुरुषस्यापि युक्तेयं स च चिद्रूप एव वः चैतन्यं चेह संशुद्धं स्थितं सर्वस्य वेदकम् / तन्त्रे ज्ञाननिषेधस्तु प्राकृतापेक्षया भवेत् आत्मदर्शनतश्च स्यान्मुक्तिर्यत्तन्त्रनीतितः / तदस्य ज्ञानसद्भावस्तन्त्रयुक्त्यैव साधित: नैरात्म्यदर्शनादन्ये निबन्धनवियोगतः / दोषप्रहाणमिच्छन्ति सर्वथा न्याययोगिनः समाधिराज एतत्तत्तदेतत्तत्त्वदर्शनम् / आग्रहच्छेदकार्ये तत्तदेतदमृतं परम् तृष्णा यज्जन्मनो योनिर्बुवा सा चात्मदर्शनात् / तदभावान्न तद्भावस्तत्ततो मुक्तिरित्यपि न ह्यपश्यनहमिति स्निात्यात्मनि कश्चन। . न चात्मनि विना प्रेम्णा सुखकामोऽभिधावति. सत्यात्मनि स्थिरे प्रेम्णि न वैराग्यस्य सम्भवः / न च रागवतो मुक्तिर्दातव्योऽस्या जलाञ्जलिः नैरात्म्यमात्मनोऽभावः क्षणिको वाऽयमित्यदः / विचार्यमाणं नो युक्त्या द्वयमप्युपपद्यते . सर्वथैवात्मनोऽभावे सर्वा चिन्ता निरर्थका। सतिं धर्मिणि धर्मा यच्चिन्त्यन्ते नीतिमद्वचः नैरात्म्यदर्शनं कस्य को वाऽस्य प्रतिपादकः / एकान्ततुच्छतायां हि प्रतिपाद्यस्तथेह कः कुमारीसुतजन्मादिस्वप्नबुद्धिसमोदिता। भ्रान्तिः सर्वेयमिति चेननु सा धर्म एव हि // 461 // // 462 // // 463 // // 464 // // 465 // // 466 // - 251