________________ // 407 // // 408 // // 409 // // 410 // // 411 // // 412 // तदभावेऽपि तद्भावो युक्तो नातिप्रसङ्गतः / मुख्यैषा भवमातेति तदस्या अयमुत्तमः पल्लवाद्यपुनर्भावो न स्कंन्धापगमे तरोः / स्यान्मूलापगमे यद्वत्तद्वद्भवतरोरपि मूलं च योग्यता ह्यस्य विज्ञेयोदितलक्षणा / पल्लवा वृत्तयश्चित्रा हन्त तत्त्वमिदं परम् उपायोपगमे चास्या एतदाक्षिप्त एव हि / तत्त्वतोऽधिकृतो योग उत्साहादिस्तथास्य तु उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात्सन्तोषात्तत्त्वदर्शनात् / मुनेर्जनपदत्यागात्षड्भिर्योगः प्रसिध्यति आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च / त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् आत्मा कर्माणि तद्योगः सहेतुरखिलस्तथा। . फलं द्विधा वियोगश्च सर्वं तत्तत्स्वभावतः / अस्मिन्पुरुषकारोऽपि सत्येव सफलो भवेत् / अन्यथा न्यायवैगुण्याद्भवन्नपि न शस्यते अतोऽकरणनियमात्तत्तद्वस्तुगतात्तथा / वृत्तयोऽस्मिनिरुध्यन्ते तास्तास्तद्बीजसम्भवाः ग्रन्थिभेदे यथैवाऽयं बन्धहेतुं परं प्रति / . . नरकादिगतिष्वेवं ज्ञेयस्तद्धेतुगोचरः अन्यथाऽऽत्यन्तिको मृत्यु यस्तत्र गतिस्तथा / न युज्यते हि सन्न्यायादित्यादि समयोदितम् हेतुमस्य परं भावं सत्त्वाद्यागोनिवर्तनम् / प्रधानकरुणारूपं ब्रुवते सूक्ष्मदर्शिनः // 413 // // 414 // // 415 // // 416 // // 417 // // 418 // 240