________________ // 371 // // 372 // // 373 // // 374 // // 375 // // 376 // चारित्रिणस्तु विज्ञेयः शुद्ध्यपेक्षो यथोत्तरम् / ध्यानादिरूपो नियमात्तथा तात्त्विक एव तु अस्यैव त्वनपायस्य सानुबन्धस्तथा स्मृतः / यथोदितक्रमेणैव सापायस्य तथाऽपरः अपायमाहुः कर्मैव निरपायाः पुरातनम् / पापाशयकरं चित्रं निरुपक्रमसंज्ञकम् कण्टकज्वरमोहैस्तु समो विघ्नः प्रकीर्तितः / मोक्षमार्गप्रवृत्तानामत एवापरैरपि / अस्यैव सास्रवः प्रोक्तो बहुजन्मान्तरावहः / पूर्वव्यावर्णितन्यायादेकजन्मा त्वनास्रवः आस्रवो बन्धहेतुत्वाद्बन्ध एवेह यन्मतः / स साम्परायिको मुख्यस्तदेषोऽर्थोऽस्य सङ्गतः एवं चरमदेहस्य सम्परायवियोगतः / / इत्वरास्रवभावेऽपि स तथानास्रवो मतः निश्चयेनात्र शब्दार्थः सर्वत्र व्यवहारतः / निश्चयव्यवहारौ च द्वावप्यभिमतार्थदौ संक्षेपात्सफलो योग इति सन्दर्शितो ह्ययम् / आद्यन्तौ तु पुनः स्पष्टं ब्रूमोऽस्यैव विशेषतः तत्त्वचिन्तनमध्यात्ममौचित्यादियुतस्य तु / उक्तं विचित्रमेतच्च तथाऽवस्थादिभेदतः आदिकर्मकमाश्रित्य जपो ह्यध्यात्ममुच्यते / देवताऽनुग्रहाङ्गत्वादतोऽयमभिधीयते जपः सन्मन्त्रविषयः स चोक्तो देवतास्तवः। दृष्टः पापापहारोऽस्माद्विषापहरणं यथा // 377 // // 378 // // 379 // // 380 // // 381 // // 382 // 44