________________ // 311 // // 312 // // 313 // // 314 // // 315 // // 316 // सर्वेषां तत्स्वभावत्वात्तदेतदुपपद्यते / नान्यथाऽतिप्रसंङ्गेन सूक्ष्मबुद्ध्या निरूप्यताम् आत्मनां तत्स्वभावत्वें प्रधानस्यापि संस्थिते / ईश्वरस्यापि सन्न्यायाद्विशेषोऽधिकृतो भवेत् सांसिद्धिकं च सर्वेषामेतदाहुर्मनीषिणः / अन्ये नियतभावत्वादन्यथा न्यायवादिनः सांसिद्धिकमदोऽप्येवमन्यथा नोपपद्यते / योगिनो वा विजानन्ति किमस्थानग्रहेण नः अस्थानं रूपमन्धस्य यथा सन्निश्चयं प्रति / तथैवातीन्द्रियं वस्तु च्छद्मस्थस्यापि तत्त्वतः हस्तस्पर्शसमं शास्त्रं तत एव कथञ्चन / अत्र तन्निश्चयोऽपि स्यात्तथा चन्द्रोपरागवत् ग्रहं सर्वत्र सन्त्यज्य तद् गम्भीरेण चेतसा। शास्त्रगर्भः समालोच्यो ग्राह्यश्चेष्टार्थसङ्गतः . दैवं पुरुषकारश्च तुल्यावेतदपि स्फुटम् / एवं व्यवस्थिते तत्त्वे युज्यते न्यायतः परम् दैवं नामेह तत्त्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् / तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः . स्वरूपं निश्चयेनैतदनयोस्तत्त्ववेदिनः। . . ब्रुवते व्यवहारेण चित्रमन्योन्यसंश्रयम् न भवस्थस्य यत्कर्म विना व्यापारसम्भवः / न च व्यापारशून्यस्य फलं यत्कर्मणोऽपि हि व्यापारमात्रात्फलदं निष्फलं महतोऽपि च / अतो यत्कर्म तदैवं चित्रं ज्ञेयं हिताहितम् . // 317 // // 318 // // 319 // // 320 // // 321 // // 322 // 236