________________ // 323 // // 324 // // 325 // // 326 // // 327 // // 328 // एवं पुरुषकारस्तु व्यापारबहुलस्तथा / . फलहेतुनियोगेन ज्ञेयो जन्मान्तरेऽपि हि अन्योन्यसंश्रयावेवं द्वावप्येतौ विचक्षणैः / उक्तावन्यैस्तु कर्मैव केवलं कालभेदतः दैवमात्मकृतं विद्यात्कर्म यत्पौर्वदेहिकम्। . स्मृतः पुरुषकारस्तु क्रियते यदिहापरम् / नेदमात्मक्रियाभावे यतः स्वफलसाधकम् / अतः पूर्वोक्तमेवेह लक्षणं तात्त्विकं तयोः दैवं पुरुषकारेण दुर्बलं ह्युपहन्यते / / दैवेन चैषोऽपीत्येतन्नान्यथा चोपपद्यते कर्मणा कर्ममात्रस्य नोपघातादि तत्त्वतः / स्वव्यापारगतत्वे तु तस्यैतदपि युज्यते उभयोस्तत्स्वभावत्वे तत्तत्कालाद्यपेक्षया / बाध्यबाधकभावः स्यात्सम्यग्न्यायाविरोधतः .. तथा च तत्स्वभावत्वनियमात्कर्तृकर्मणोः / फलभावोऽन्यथा तु स्यान्न काङ्कटुकपक्तिवत् कर्मानियतभावं तु यत्स्याच्चित्रं फलं प्रति / तद्बाध्यमत्र दादिप्रतिमायोग्यतासमम् नियमात्प्रतिमा नात्र न चातोऽयोग्यतैव हि / तल्लक्षणनियोगेन प्रतिमेवास्य बाधक: दार्वादेः प्रतिमाक्षेपे तद्भावः सर्वतो ध्रुवः / योग्यस्यायोग्यता चेति न चैषा लोकसिद्धितः कर्मणोऽप्येतदाक्षेपे दानादौ भावभेदतः / फलभेदः कथं नु स्यात्तथा शास्त्रादिसङ्गतः / / // 329 // // 330 // // 331 // // 332 // // 333 // // 334 // 240