________________ // 168 // " // 169 // // 170 // // 171 // // 172 // // 173 // स तत्रैव भवोद्विग्नो यथा तिष्ठत्यसंशयम्। मोक्षमार्गेऽपि हि तथा भोगजम्बालमोहितः मीमांसाभावतो नित्यं न मोहोऽस्यां यतो भवेत् / अतस्तत्त्वसमावेशात्सदैव हि हितोदयः ध्यानप्रिया प्रभा प्रायो नास्यां रुगत एव हि / तत्त्वप्रतिपत्तियुता विशेषेण शमान्विता ध्यानजं सुखमस्यां तु जितमन्मथसाधनम्। विवेकबलनिर्जातं शमसारं सदैव हि सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् / एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः पुण्यापेक्षमपि ह्येवं सुखं परवंशं स्थितम् / ततश्च दुःखमेवैतत्तल्लक्षणनियोगतः / ध्यानं च निर्मले बोधे सदैव हि महात्मनाम् / क्षीणप्रायमलं हेम सदा कल्याणमेव हि सत्प्रवृत्तिपदं चेहासङ्गानुष्ठानसंज्ञितम् / . महापथप्रयाणं यदनागामिपदावहम् ' प्रशान्तवाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः / शिववर्त्म ध्रुवाध्वेति योगिभिर्गीयते ह्यदः एतत्प्रसाधयत्याशु यद्योग्यस्यां व्यवस्थितः / एतत्पदावहैषैव तत्तत्रैतद्विदां मता समाधिनिष्ठा तु परा तदासङ्गविवर्जिता। सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च निराचारपदो ह्यस्यामतिचारविवर्जितः / आरूढारोहणाभावगतिवत्त्वस्य चेष्टितम् 208 // 174 // // 175 // // 176 // // 177 // / / 178 // // 179 //