________________ // 84 // // 85 // // 86 // // 87 // // 88 // // 89 // बडिशामिषवत्तुच्छे कुसुखे दारुणोदये / सक्तास्त्यजन्ति सच्चेष्टां धिगहो ! दारुणं तमः / अवेद्यसंवेद्यपदमान्ध्यं दुर्गतिपातकृत् / सत्सङ्गागमयोगेन जेयमेतन्महात्मभिः जीयमाने च नियमादेतस्मिंस्तत्त्वतो नृणाम् / निवर्तते स्वतोऽत्यन्तं कुतर्कविषमग्रहः बोधरोगः शमापाय: श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् / कुतर्कश्चेतसो व्यक्तं भावशत्रुरनेकधा कुतर्केऽभिनिवेशस्तन्न युक्तो मुक्तिवादिनाम् / युक्तः पुनः श्रुते शीले समाधौ च महात्मनाम् बीजं चास्य परं सिद्धमवन्ध्यं सर्वयोगिनाम् / परार्थकरणं येन परिशुद्धमतोऽत्र च अविद्यासङ्गताः प्रायो विकल्पाः सर्व एव यत्। . तद्योजनात्मकश्चैष कुतर्कः किमनेन तत् जातिप्रायश्च सर्वोऽयं प्रतीतिफलबाधितः / हस्ती. व्यापादयत्युक्तौ प्राप्ताप्राप्तविकल्पवत् स्वभावोत्तरपर्यन्त एषोऽसावपि तत्त्वतः / नार्वाग्दृग्गोचरो न्यायादन्यथान्येन कल्पितः अतोऽग्नि: क्लेदयत्यम्बुसंनिधौ दहतीति च। अम्ब्वग्निसंनिधौ तत्स्वाभाव्यादित्युदिते तयोः कोशपानादृते ज्ञानोपायो नास्त्यत्र युक्तितः / विप्रकृष्टोऽप्ययस्कान्त: स्वार्थकृदृश्यते यतः दृष्टान्तमात्र सर्वत्र यदेव सुलभं क्षितौ। . एतत्प्रधानस्तत्केन स्वनीत्यापोद्यते ह्ययम् 201 // 90 // // 91 // // 92 // // 93 // // 94 // // 95 //