________________ // 235 // // 236 // // 237 // स्वरूपमात्मनो ह्येतत् किं त्वनादिमलावृतम् / जात्यरत्नांशुवत्तस्य क्षयात्स्यात्तदुपायतः आत्मनस्तत्स्वभावत्वाल्लोकालोकप्रकाशकम् / अत एव तदुत्पत्तिसमयेऽपि यथोदितम् आत्मस्थमात्मधर्मत्वात् संवित्त्या चैवमिष्यते / गमनादेरयोगेन नान्यथा तत्त्वमस्य तु यच्च चन्द्रप्रभाद्यत्र ज्ञातं तज्ज्ञातमात्रकम् / / प्रभा पुद्गलरूपा यत्तद्धर्मो नोपपद्यते. अतः सर्वगताभासमप्येतन्न यदन्यथा / . युज्यते तेन सन्न्यायात् संवित्त्यादोऽपि भाव्यताम् नाद्रव्योऽस्ति गुणो लोके न धर्मान्तो विभुर्न च / आत्मा तद्गमनाद्यस्य नास्तु तस्माद्यथोदितम् // 238 // . // 239 // // 240 // // देशनाष्टकम् // 31 // वीतरागोऽपि सद्वेद्यतीर्थकृन्नामकर्मणः / उदयेन तथा धर्मदेशनायां प्रवर्तते // 241 // वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यत एव हि / / तथाविधं समादत्ते कर्म स्फीताशयः पुमान् // 242 // यावत्संतिष्ठते तस्य तत्तावत्संप्रवर्तते / तत्स्वभावत्वतो धर्मदेशनायां जगद्गुरुः // 243 // वचनं चैकमप्यस्य हितां भिन्नार्थगोचराम् / भूयसामपि सत्त्वानां प्रतिपत्तिं करोत्यलम् / / // 244 // अचिन्त्यपुण्यसंभारसामर्थ्यादेतदीदृशम् / .. तथा चोत्कृष्टपुण्यानां नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये // 245 // ...