________________ बोली बोलने के विधान हेतु सिर्फ 'श्राद्धविधि' में आये 'उत्सर्पण' शब्द को ही ( वह भी गलत अर्थ करके ) पर्याप्त समझ लेना सशोक आश्चर्य की बात है। यदि तत्संबंधी विधान किसी भी ग्रन्थ में नहीं था तो फिर अनेक ग्रन्थों का उल्लेख करनेका प्रयोजन क्या था? अस्तु / - बोली, कोई गलत बात नहीं है क्योंकि यह तो क्लेशनिवारणार्थ संघ द्वारा बनाया गया रिवाज है, परन्तु 'चारित्र' जो कि मोक्षप्राप्ति के साधनों में एक मुख्य साधन है, उसमें भी परिवर्तन हुआ है देखिए सम्यकचारित्र के दो भेद हैं-आभ्यन्तर चारित्र और बाह्यचारित्र। जिसमें शुद्धोपयोग, शुद्धभावना और शुद्ध ध्यान हो, इस प्रकार आत्मा की स्थिति को आभ्यन्तर चारित्र कहा जाता है और आचार- अनुष्ठानादि क्रिया बाह्य चारित्र है। इन दोनों में से आभ्यन्तर चारित्र सदैव व्यवस्थित रहता है क्योंकि आत्मा की शुद्ध परिणति आभ्यन्तर चारित्र का लक्षण है वह अपने स्वरूप में तीनों कालों में निश्चित रहता है किन्तु बाह्यचारित्र तीनों कालों में निश्चितरूप से नहीं रहता है, क्योंकि आचार-अनुष्ठानादि बाह्यक्रिया रूप है, इसी कारण उसमें परिवर्तन देखते हैं। देखिये, प्रतिक्रमण जो प्रतिदिन की आवश्यकक्रिया