________________ "यतो लोकेऽपि कृषिवाणिज्यसेवाभोजनशयनासनविद्यासाधनगमनं वंदनादिकं च द्रव्य-क्षेत्र-कालादिविधिना,विहितं पूर्णफलवत्, नान्यथा।" ___ अर्थात्-लोक में भी कृषि, व्यापार, नौकरी, भोजन, शयन, आसन, विद्यासाधन, गमन और वंदनादि द्रव्यक्षेत्र-काल वगैरह विधि के अनुसार किये गये कार्य ही सम्पूर्ण फलदायी होते हैं, अन्यथा नहीं। - इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि शास्त्रकार प्रत्येक कार्य में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर ध्यान देने की सूचना करते हैं। शास्त्रों में ऐसे अनेक दृष्टान्त भी मिलते हैं कि महापुरुषों को भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार अपनी प्रवृत्तियों में परिवर्तन करना पड़ता है। गौतम स्वामी और केशीगणधरं जब मिले, तब चार और पांच महाव्रतों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श हुआ। उस समय केशीगणधर पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा के होने से चार महाव्रतों के धारण करने वाले होने पर भी द्रव्यक्षेत्र-कालानुसार पाँच महाव्रत वगैरह का अर्थात् पञ्चरंगी कपड़ों के बदले में सफेद वस्त्रं, दो प्रतिक्रमणों के बदले में पञ्चप्रतिक्रमण , आदि स्वीकार किए थे और यह भी सत्य है कि समय-समय की क्रिया समय-समय पर होने पर ही शोभास्पद